किस महिने में क्या खाएं और क्या नहीं आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा के वषों पुराने लोक कहावत व नियम

आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा के वर्षों पुराने लोक कहावत के माध्यम से जानिए

जन-मानस के जीवन का बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी: किस महीने में क्या खाएं और किस महीने क्या नहीं।

सेवन करें -

चैत चना, बैसाखे बेल, जेठे शयन, आषाढ़े खेल सावन हर्रे, भादों तिल।

कुवार मास गुड़ सेवै नित, कार्तिक मूली अगहन तेल, पूस करें दुध से मेल। माघ मास घी-खिच्चड़ खाय, फागुन उठ नित प्रात नहाय।

कहावत में निर्दिष्ट बिन्दुओं को तालिका - बद्ध किया जा रहा है

Sr. No. महिना खाएं अथवा करें
1 चैत्र ( मार्च - अप्रैल ) चना
2 बैसाख ( अप्रैल - मई ) बेल
3 ज्येष्ठ ( मई - जून ) शयन
4 आषाढ़ ( जून - जुलाई ) खेल
5 श्रावण ( जुलाई - अगस्त ) हरड़
6 भाद्रपद ( अगस्त - सितम्बर ) तिल
7 आशिवन ( सितम्बर - अक्टूबर ) गुड़
8 कार्तिक ( अक्टूबर - नवम्बर ) मूली
9 मार्गशीर्ष ( नवम्बर - दिसंबर ) तेल
10 पौष ( दिसंबर - जनवरी ) दूध
11 माघ ( जनवरी - फरवरी ) घी - खिचड़ी
12 फाल्गुन ( फरवरी - मार्च ) प्रातः स्नान

Additional Information

1. चैत्र से आषाढ़ तक का विषय कुछ लोग इस प्रकार भी बतलाते हैं -

चैत्र मास में बेसहनी। बैसाख में खाबै जड़हनी।
जेठ मास जो दिन में सोवै। ताको ज्वर आषाढ़ में रोवै।

अर्थात चैत में नीम, बैसाख में बात, जेठ में दिन में शयन करें। जेठ के महिने में दिन में सोना लाभप्रद कहा गया है। जेठ में दिन से आषाढ़ के महीने में बुखार नहीं आता है।

2. कुछ लोग 'सावन हर्रे, भादों चीत.' भी कहते हैं जिसका अर्थ है - श्रावणमास में हरड़ सेवन करें तथा भाद्रपद मास में 'चिरायता' का सेवन करें।

3. कार्तिक दूध, अगहन में आलू, पूस पान आलू माघ रतालू। फागुन शक्कर-घी जो खाय, चैत आंवला कच्चा चबाय। बैसाख जो खाय करेला, जेठे दाख, आषाढ़े केला। सावन निशि में जब, तब खाय, भादों ब्याद कबहुं नहि पाय। क्वार कामना देय बचाय, तो संत वर्ष आयु हो जाय।


महिना खाएं अथवा करें
कार्तिक दूध
मार्गशीर्ष ( अगहन ) आलू
पौष पान
माघ रतालू
फाल्गुन शक्कर - घी
चैत्र कच्चा आंवला
वैशाख करेला
ज्येष्ठ दाख
आषाढ़ केला
श्रावण रात्रि में भोजन निषिद्ध है
भाद्रपद वर्षा में नहीं भींगे
आशिवन सेक्स नहीं करें

3. सावन में गुड़ खावै, चाहे मुहर बराबर आवै।

यह ब्रज भाषा की लोकोक्ति है, जिसमें श्रावण मास में गुड़ के सेवन से स्वास्थ्य लाभ होने के कारण ' गुड़ सेवन ' की अनिवार्यता प्रातिपदित की गई है। सावन में गुड़ अवश्य खाना चाहिए,भले ही गुड़ की कीमत ' सोने की मोहर ' जितना ही क्यों नहीं हो।

  1. वर्षाकाल में ऋतु प्रभाव से हमारी भूख कम पड़ जाती है। आयुर्वेद की भाषा में इस लक्षण को ' मंदाग्रि ' कहा जाता है। वर्षा काल की मंदाग्रि को शांत करने तथा जठराग्रि को प्रदीप्त करने हेतु गुड़ बेजोड़ है। दरअसल वर्षाकाल में हमारे शरीर में ' पित्त ' का संचय होता है रहता है, गुड़ पित्त को शांत कर देता है।
  2. गुड़ के विषय में विस्तृत जानकारी ' कहावतों ' में आहार ग्रहण करने की विधियां प्रकरण के अन्तर्गत भोजन के अन्त में गुड़ शीर्षक में दी गई है।

सेवन करने से बचें.....

चैते गुड़ बैशाखे तेल,जेठ के पथ, आषाढ़े बेल।
सावन साग,भादों यही, क्वार करेला,कातिक दही।
अगहन जीरा,पूसै घना,माघै मिसरी,फागुन चना।
जो कोई इतने परिहरै,था घर बैल पैर नहि धरै।

महिना नहीं खाएं... नहीं करें
चैत्र ( मार्च - अप्रेल ) गुड़
बैसाख ( अप्रेल - मई ) तेल
ज्येष्ठ ( मई - जून ) पथ - गमन घूमना
आषाढ़ ( जून - जूलाई ) खेलकूद
श्रावण ( जूलाई - अगस्त ) हरी सब्जी, सत्तू
भाद्रपद ( अगस्त - सितम्बर ) छाछ, दही
आशिवन ( सितम्बर - अक्टूबर ) करेला
कार्तिक ( अक्टूबर - नवंबर ) दही छाछ
मार्गशीर्ष ( नवम्बर - दिसंबर ) जीरा
पौष ( दिसंबर - जनवरी ) धनिया
माघ ( जनवरी - फरवरी ) मिसी
फाल्गुन ( फरवरी - मार्च ) चना

आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा की कहावतें

1. क्वार करेला, चैत गुड़, भादों मूली खाय।
पैसा छावै गांठ का, रोग गले पड़ जाय।

आशिवन (क्वार) के महीने में करेला, भाद्रपद (भादों) के महीने में मूली तथा चैत्र के मास में गुड़ का सेवन करने से शरीर में अनेकों रोग पैदा हो जाते हैं तथा रोगों के उपचार में पैसा बर्बाद होता है।

2. आषाढ़ मास जो दिन में सोवै, ओकर सिर सावन में रोवै।

आषाढ़ मास में दिन में सोना (शयन) हानिकारक कहा गया है। जो व्यक्ति आषाढ़ मास में दिन में सोता है उसे सावन महीने में सिरदर्द का सामना करना पड़ता है।

3. सावन व्यारू जब - तब कीजै, भादौ व्यारू नाम न लीजै।

श्रावण (सावन) के महीने में व्यारू (व्यारू भोजन का समानार्थी है) जब तब कर लेना चाहिए अर्थात थोड़ी मात्रा में आहार ग्रहण करना चाहिए तथा भाद्रपद (भादों) के महीने में व्यालू (भोजन) का नाम नहीं लेना चाहिए। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि 'वायलू' शब्द भरपेट भोजन के संदर्भों में आता है।

इस कहावत में वर्षा ऋतु में आहार की मात्रा स्वल्प रखने की बहुमूल्य सलाह दी गई है। वर्षा ऋतु में नैसर्गिक रूप से ही शरीर की जठराग्रि (पेट की आग) दुर्बल रहती है तथा वायु आदि दोष स्वाभाविक रूप में ही बढ़े हुए होते हैं। ऐसे में यदि इस ऋतु (श्रावण - भाद्रपद) में आहार का सेवन अति मात्रा में किया जाएगा तो जठराग्रि और भी कम हो जाएगी, फलस्वरूप (इंडाइजेशन) आदि उत्पन्न होकर शरीर विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त हो जाएगा।

यही कारण है कि आज भी जैन धर्म के मुनि जन वर्षा काल में (चातुर्मास) करते हुए, भ्रमण त्याग करते हुए, एक ही स्थान पर रहते हैं तथा व्रत - उपवास करते हुए शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य को और भी अधिक उन्नत बना लेते हैं।

रूस के चिकित्सा वैज्ञानिक ब्लाडीमिर व्यापक अनुसंधानों के बाद लिखते हैं कि उपवास के द्वारा फिर से जवान होना और अपने यौवन को बहुत दिनों तक बनाए रखना संभव होता है। अनेक व्यक्तियों के जल्दी मरने का कारण, ज़रूरत से ज़्यादा खा लेना तथा सौ वर्ष पूर्व की अपनी पाचन-शक्ति को बिगाड़ देना है। पहले अधिक भोजन किया जाए, तत्पश्चात उसे पचाने के लिए अनेक प्रकार की दवाइयां खाई जाएं, यह एक प्रकार की मूर्खता ही है, जो वर्तमान सभ्यता की देन है।

4. भादों की छाछ भूतों की, कार्तिक की छाछ पूतो की।

भाद्रपद (भादों) मास में सेवन की जाने वाली छाछ भूतों की अर्थात व्यक्ति को मार डालती है, क्योंकि वह अनेक रोगों को पैदा करती है। कार्तिक मास में छाछ पूतों अर्थात सुपुत्रों के लिए अमृत तुल्य है। भाद्रपद मास में दही का सेवन करने पर व्यक्ति बारहों महीने बीमार रहता है।

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